Wednesday, October 30, 2013

दीपावली पर्व-उत्सव समूह

दीपावली कार्तिक अमावस्या की तमावृत शीत रात्रि को दीप-प्रकाश से आलोकित कर उत्सव में परिणित करने की हिन्दू परम्परा कब से दीवाली – दीपावली के रूप में भारतीय जनमानस में सबसे बड़े उत्सव के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी, निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता क्योंकि इतिहास को कितना भी पीछे ले जाने का प्रयास करें, दीवाली सदैव विद्यमान है | क्या है ऐसा विशेष इस त्यौहार में जो इसे सर्वव्यापी, सर्वश्रेष्ठ व सर्वग्राह्य बना देता है ? क्यों इस पर्व के अवसर पर भारत में ही नहीं समस्त विश्व में जहाँ भी हिन्दू हैं, उत्साह और प्रकाश का संचरण होता है ? नगर- ग्राम, निर्धन- धनाड्य, घर- हाट/बाजार सभी चहचहा उठाते हैं, दमक उठते हैं ? पर्व और उत्सव के साथ व्रत- उपवास हिन्दू संस्कृति की मान्यताओं के अभिन्न अंग हैं | जहाँ किसी भी संक्रमण काल को पर्व की संज्ञा देना शब्दोचित है, उस काल में उत्साह का संचार होने पर ही वह उत्सव हो सकता है, ये स्पष्ट है | ज्येष्ठ मास की निर्जला एकादशी व्रत- उपवास युक्त पर्व तो है, किन्तु तपाने वाली भीषण अग्निवर्षा में उत्सव कैसे हो सकता है ?, अत: स्वयं निर्जल उपवास करके जल- संरक्षण व जगती की पिपासा को शान्त करने के लिए पेयजल का साधन व वितरण | कोई उत्सव नहीं, किन्तु विश्व मंगल का सृष्टि व समष्टि के संरक्षण का अक्षुण्ण प्रयास, यही है हिन्दू संस्कृति | ऐसे समाज में जल-संकट की संभावना कहाँ हो सकती है ? ये वही परम्परा है जिसमें अपने पितरों के तर्पण (सगर के ६० हजार पुत्रों) के लिए भगीरथ ने गंगा को प्रवाहित कर पितृ-ऋण से मुक्ति प्राप्त की थी | पितृ- ऋण की ही परम्परा में जुड़ा एक पक्ष ( आश्विन कृष्ण पक्ष ) जिसका नामकरण ही पितृ- पक्ष हो गया और समस्त हिन्दू समाज का अपने पितरों के प्रति श्रद्धाभाव स्थिर हो गया | इसके अतिरिक्त हमने मृत्यु अथवा पराभव को स्मरण नहीं किया कभी | उपरोक्त वर्णन उत्सव से पर्व को पृथक स्थापित करता है | दीवाली की ही बात करें तो इसको उत्सव समूह कहना कोई अतिशयोक्ति न होगी | वर्षा ऋतु के उपरान्त पितृ- पक्ष में पितृ- ऋण से मुक्त हो आश्विन शुक्ल पक्ष में शक्ति- बुद्धि की देवी की उपासना से व्रतपूर्वक शक्ति- संचय और विजया दशमी को विजय के लिए प्रस्थान द्योतक है हमारी श्रद्धा का स्त्री के प्रति, प्रतीक है शक्ति के संचय के प्रयास व निश्चित विजय की कामना का | शक्ति संचय में एक और पड़ाव है शरद पूर्णिमा का, जब चन्द्रमा की शीतलता से हिन्दू समाज स्वास्थ्य- लाभ अर्जित करता है | शरद ऋतु के शीतोष्ण काल में वर्षाकाल के उपरान्त शौच की परम्परा भी विलक्षण है, घर- मढैया को लिपाई पुताई से स्वच्छ कर आगत धान व इक्षु के निमित्त तैयार करना अपेक्षित ही है न ! वैसे तो आरोग्य हिन्दू समाज का अभिन्न अंग है क्योंकि चतुर्विध पुरुषार्थ- जो ध्येय है, उसकी प्राप्ति मनुष्य शरीर द्वारा सम्भव है और शरीर को निरोग रखने से ही पुरुषार्थ सम्भव है, अत: स्वास्थ्य-रक्षण के लिए आयुर्वेद नामक विज्ञान का आविर्भाव वेद-काल से ही होता है और अथर्ववेद का तो उपवेद बन जाता है- आयुर्वेद | दीपावली से २ दिन पूर्व की त्रयोदशी “धन्वंतरि त्रयोदशी” के नाम से विख्यात है | सागर- मंथन से अमृतघट लेकर भगवान धन्वंतरि प्रकट हुए जिन्हें आयुर्वेद का प्रवर्तक कहा गया और इसके साथ ही कहा गया “आयुर्वेदो-अमृतानम्”, क्योंकि ये आयुर्वेद ही जरा-रोग-मृत्यु से बचाने का साधन है अत: इसे अमृत कहा गया | अस्तु, व्यंजना कुछ भी हो, स्वस्थ रहने का सन्देश तो निहित है ही और “धन- तेरस” यदि मानें तो धन-धान्य का उपयोग भी तो आरोग्य के पश्चात ही सुखद होगा न ! धन-धान्य का उपयोग अपने यहाँ बहुत हुआ हुआ है, भारत के प्रमुख कृषि उत्पाद “धान” का भारतीय संस्कृति से समवाय सम्बन्ध है | सभी प्रकार के कर्म-काण्ड में धान से निकले चावल का प्रयोग, उसका संस्कृत नाम अक्षत (अ+क्षत) इसके महत्व को प्रदर्शित करता है, अत: ऐसे पदार्थ के स्वागतार्थ उत्सव मनाने की परम्परा निरर्थक नहीं | इस अवसर पर नवधान्य के स्वागतार्थ मिट्टी और धातु के नए पात्र का क्रय और आर्थिक स्थिति के अनुकूल स्वर्ण आभूषण आदि का क्रय जहाँ भारत की समृद्धि का द्योतक है वहीँ दीपावली पर लक्ष्मी के आह्वान के साथ इसका सम्बन्ध है ही | दीपावली से एक दिन पूर्व की चतुर्दशी “नरक चतुर्दशी” के नाम से विख्यात है | द्वापर में नरकासुर द्वारा बलात् १६,००० राजकन्याओं को बन्दी बना लेने से कृष्ण द्वारा नरकासुर के वध के साथ उन राजकन्याओं को द्वारिका में अपने आश्रय में लेने के प्रसंग से उस काल के जनमानस का उत्साह दीपावली के प्रति और बढ़ा होगा ये स्वाभाविक ही है | ब्रज व द्वारिका क्षेत्र में नरक चतुर्दशी के पर्व पर विशेष उत्साह आज भी देखा जाता है | द्वापर से पूर्व त्रेता में जिस वर्ष मर्यादा पुरुषोत्तम राम १४ वर्ष की वनवास अवधि पूर्ण कर अयोध्या लौटे, निश्चित ही अयोध्या-वासियों के लिए वाह कार्तिक अमावस्या विशेष रही होगी और जन-जन के प्रिय राम के प्रति अनुराग ने दीपावली के उत्साह में एक नया अध्याय जोड़ दिया, ये स्वाभाविक ही है | लक्ष्मी का वाहन उलूक जिसे रात्रि में आवागमन की सुविधा, अत: कार्तिक अमावस्या की घटाटोप रात्रि में लक्ष्मी का आह्वान और दीप प्रकाश से लक्ष्मी का स्वागत करते हुए धन-धान्य संपन्न भारत द्वारा समस्त चराचर जगत को प्रकाशमान करने का उपक्रम वन्दनीय ही है | किन्तु उलूक प्रतीक है अन्धत्व का और इसलिए लक्ष्मी का प्रवेश चकाचौंध प्रकाश में अन्धत्व उत्पन्न न करे, अत: लक्ष्मी जी को कमलासन पर विराजित कर कमल सदृश नि:स्पृहता से ग्रहण करते हुए, विघ्न-विनाशक गणपति के साथ विराजित कर हिन्दू समाज ने माया की माया से विचलित न होने का मार्ग भी ढूँढ निकाला | लक्ष्मी जी के समक्ष धान (खील), इक्षु व इक्षुरस निर्मित मधुर पदार्थों के साथ साथ नवीन पात्र में मुद्रा के साथ देवी के रूप में स्त्री शक्ति के प्रति श्रद्धा के साथ आराधन पुन: हिन्दू समाज का नारी के प्रति आदर भाव प्रतिष्ठित करता है और वैभवशाली हिन्दू मनीषा का प्रतीक है | हिन्दू संस्कृति की परम्परागत पद्धति का निर्माण कितने विलक्षण व वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हुआ, सकारात्मक व निरपेक्ष भाव से चिन्तन करने पर ये स्व-स्थापित होता चलता है | देवलोक का स्वामी इन्द्र भी इन्द्र पद प्राप्त कर दम्भ्युक्त हो सकता है, किन्तु उसके दम्भ को सदैव किसी अन्य सामान्य मनुष्य के दम्भ के समान पराभव प्राप्त होता है इसके अनेकों दृष्टांत अपने पौराणिक साहित्य में प्रचुरता से विद्यमान हैं | द्वापर के कृष्ण-काल में भी जब गोकुल का कान्हा स्थानीय वन-पर्वत सम्पदा के संरक्षण का महत्व गोकुलवासियों को बताता है और केवल कर्म-काण्ड के अतिरिक्त अपनी प्राकृतिक सम्पदा के संरक्षण के प्रति जनमानस को उद्वेलित करता है तो इन्द्र के कोप से गोकुल के अस्तित्व पर ही संकट उमडता है, तभी कान्हा (कृष्ण) गोकुल के समस्त जीवों की रक्षा उसी स्थानीय सम्पदा जिसे गोवर्धन पर्वत श्रृंखला के नाम से जाना जाता है की गुहाओं में छिपा कर करता है और बन जाता है गोवर्धनधारी | तब से ब्रज के लोग व अन्य कृष्णभक्त (भगवद्भक्त) कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन उस गोवर्धनधारी कृष्ण की लीला का स्मरण करते हुए गो-धन के प्रति व प्रकृति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को प्रकट करते हैं | दीपावली की रात्रि के उत्सव के उपरान्त कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को देवालयों, अन्नक्षेत्रों में सामूहिक भोज (अन्नकूट) की प्रथा अत्यन्त मनोहर व सार्थक है, सकल समाज के सहयोग से एक जैसे भोजन का ग्रहण समस्त हिन्दू समाज को एक-सूत्र में पिरो देता है और घर- परिवार की महिलाओं को दीपावली के महापर्व की थकान को दूर करने का अवसर प्रदान करता है | कार्तिक शुक्ल द्वितीया (यम- द्वितीया- भैया दूज) दीपावली पर्व-उत्सव समूह का अंतिम पर्व है | यम- यमी के प्रसंग से प्रारम्भ ये पर्व भई- बहन के पावन सम्बन्ध को रेखांकित करता है | इसी परम्परा का निर्वहण करते हुए इस दिन द्वापर में कृष्ण के अपनी बहन सुभद्रा के घर जाकर तिलक रूपी शुभकामना से कृष्ण का शक्ति संचय इस पर्व के महत्व को बल प्रदान करता है और हिन्दू समाज में परिवार और समाज के मध्य सौहार्द व सद्भाव को स्थापित करता है | दीपावली समूह के सभी पर्वों का सन्देश अत्यन्त स्पष्ट है- प्रकृति प्रेम व संरक्षण; कृषि उत्पादों का आदरपूर्वक ग्रहण व समष्टि के हित में उपयोग; धन, बल, बुद्धि का संचय किन्तु माया के प्रति अलिप्तता; मानवीय सम्बन्धों में सद्भाव- सौहार्द और उदात्त नैतिक मूल्यों की स्थापना से विश्व के कल्याण की कामना | डॉ. जय प्रकाश गुप्त अधीकृत चिकित्सक राजकीय महाविद्यालय, अम्बाला छावनी | सम्पर्क- ९३१५५१०४२५

Thursday, October 23, 2008

दीपावली- एक विवेचन








 कार्तिक अमावस्या पर दीप प्रज्ज्वलन की परम्परा अविस्मरणीय काल से सम्पूर्ण भारतवर्ष में जानी मानी जाती रही है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष उत्साहपूर्वक मनाए जाने वाले इस पर्व को दीवाली-दीपावली के नाम से पुकारा गया। इस पर्व को उत्सव के रूप में मनाए जाने के उत्साह में आतिशबाजी-मिठाई आदि इससे जुड़ते चले गए, यह इतिहाससिद्ध है। यही कारण है कि भारतीय शिक्षा में विभिन्न भाषाओं की शिक्षा में विद्यालय स्तर पर निबन्ध लेखन में दीवाली एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में स्वीकृत हुआ। किन्तु दीवाली पर निबन्ध की विषयवस्तु में प्राय पूरे भारत में भगवान राम के चौदह वर्षों के वनवास के उपरान्त इस दिन अयोध्या वापसी को ही इस पर्व के मूल में जानने की परम्परा का विकास हुआ है।

भारत के बुद्धिराक्षस सैकुलरों द्वारा पुन: पुन: राम व रामकथा पर प्रश्नचिह्न लगने के इस संक्रमण काल में राम से जुड़े आक्षेपों की जांच करने के कारण मन हुआ कि दीपावली उत्सव के राम से सम्बन्ध की पुष्टि करूं। इसके परिणामस्वरूप जो तथ्य मेरे समक्ष आए उनके कारण मेरे मन में इस पर्व का महत्व और अधिक पुष्ट हुआ है।

यहां चौंका देने वाला तत्य यह है कि वाल्मीकि रामायण अथवा तुलसी रामचरितमानस में राम की अयोध्या वापसी की तिथि का वर्णन नहीं है तथा न ही अयोध्यावासियों द्वारा दीपमाला करने का संदर्भ। युद्धकांड के १२५वें सर्ग के २४वें श्लोक में ऋषि वाल्मीकि ने हनुमान-निषादराज गुह संवाद प्रस्तुत किया है। हनुमान जी निषादराज को कहते हैं,"वे भगवान राम आज भरद्वाज ऋषि के आश्रम (प्रयाग) में हैं तथा आज पंचमी की रात्रि के उपरान्त कल उनकी आज्ञा से अयोध्या के लिये प्रस्थान करेंगे, तब मार्ग में आपसे भेंट करेंगे।" इसमें मास अथवा पक्ष का उल्लेख न होने से केवल इतना ही विदित होता है कि भगवान राम के वनवास से अयोध्या लौटने की तिथि षष्ठी रही होगी। अभिप्राय यह कि यह तिथि किसी भी प्रकार् अमावस्या नहीं है, अस्तु। किन्तु इससे कार्तिक अमावस्या व अयोध्या की दीपमालिका की लोकोक्ति असत्य सिद्ध नहीं होती, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि त्रेता युग में राम की अयोध्या वापसी से पूर्व कार्तिक अमावस्या पर दीप प्रज्ज्वलन की परम्परा समाज में थी, किन्तु राम की लंका विजयोपरान्त अयोध्या वापसी को अयोध्या वासियों ने अधिक उत्साहोल्लास से प्रकट किया जिससे सम्भवत: दीवाली की जनश्रुति राम के साथ जुड़ गई।

दीपावली का मूल कहां है, निश्चित रूप से कह पाना कठिन है, किन्तु इस पर्व से जुड़े ऐतिहासिक प्रमाणों पर दृष्टिपात से हमारे दीवाली सम्बन्धी ज्ञान में तो वृद्धि होगी ही। आइए प्रयास करें।

स्कन्दपुराण, पद्मपुराण व भविष्यपुराण में इसके सम्बन्ध में भिन्न भिन्न मान्यताएं हैं। कहीं महाराज पृथु द्वारा पृथ्वी का दोहन करके अन्न धनादि प्राप्ति के साधनों के नवीकरण द्वारा उत्पादन शक्ति में विशेष वृद्धि करके समृद्धि व सुख की प्राप्ति के उल्लास में इस पर्व का वर्णन है तो कहीं कार्तिक अमावस्या के ही दिन देवासुरों द्वारा सागर मन्थन से लक्ष्मी के प्रादुर्भाव के कारण जनसामान्य में प्रसन्नतावश इसके मनाए जाने का उल्लेख है। 

सनत्कुमार संहित के अनुसार एक बार दैत्यराज बलि ने समस्त भूमण्डल पर अधिकारपूर्वक लक्ष्मी सहित सम्पूर्ण देवी देवताओं को अपने कारागार में डाल दिया तथा इस प्रकार एकछत्र शासन करने लगा। लक्षमी के अभाव में समस्त संसार क्षुब्ध हो उठा, यज्ञ आदि में भी विघ्न उपस्थित होने लगा। तब देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धर कर उस पराक्रमी दैत्य पर विजय प्राप्त की तथा लक्ष्मी को उसके बन्धन से मुक्त किया। इस अवसर पर जनसामान्य का उल्लास स्वभाविक ही था अत: दीपप्रकाश किया गया होगा। इस ऐतिहासिक आख्यान का यह अर्थ हो सकता है कि दैत्यराज बलि ने प्रजा का धन वैभव कर के रूप में लूट कर् राजकोष में डाल दिया हो तथा वामन रूपी भगवान विष्णु ने बलि पर विजय प्राप्त कर उसका वध करके प्रजा को उसका धन लौटा दिया हो जिसके फ़लस्वरूप आर्थिक लाभ की प्रसन्नता में जनसामान्य ने लक्ष्मी पूजन किया हो।

इसके अतिरिक्त द्वापर युग में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन भग्वान कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करके उसके बन्दीगृह से १६००० राजकन्याओं का उद्धार करने पर मथुरावासियों ने अमावस्या पर अपनी प्रसन्नता दीप जला कर प्रकट की। महाभारत के आदिपर्व में पाण्डवों के वनवास से लौटने पर प्रजाजनों द्वारा उनके स्वागत में उत्सव मनाए जाने का उल्लेख है, जिससे दीवाली का सम्बन्ध जुड़ता है। 

कल्पसूत्र नामक जैन ग्रन्थानुसार कार्तिक अमावस्या के ही दिन २४वें जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अपनी ऐहिक लीला का संवरण किया। उस् समय देश देशांतर से आए उनके शिश्यों ने निश्चय किया कि ज्ञान का सूर्य तो अस्त हो गया, अब दीपों के प्रकाश से इसे उत्सव के रूप में मनाना चाहिए।

 ऋषि वात्स्यायन अपने ग्रन्थ कामसूत्र में इसको यक्षरात्रि के नाम से स्मरण करते हैं। सम्राट हर्षवर्धन के समकालीन नीलमतपुराण नामक ग्रन्थ में ‘कार्तिक अमायां दीपमालावर्णनम्’ नाम से एक् स्वतन्त्र अध्याय ही है।

सिख सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी को बाबर ने इस्लाम न मानने के कारण कारावास में डाल दिया। गुरु जी के अनेक शिष्यों ने दीपशलाकाओं को हाथ में उठाए कारावास के बाहर विशाल प्रदर्शन किया जिससे भयभीत हो बाबर ने उन्हें छोड़ दिया। गुरु जी की मुक्ति पर उनके शिष्यों ने प्रकाशोत्सव मनाया, इसे दीवाली कहा गया। मुग़ल सम्रात जहांगीर ने सिख सम्प्रदाय की छठी पाद्शाही के पद पर आसीन गुरु हरगोविन्द जी को ५२ हिन्दु राजाओं के साथ कारावास में डाल दिया। शिष्यों के व्यापक विद्रोह से वशीभूत जहांगीर ने गुरु जी को छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा, किन्तु गुरु जी ने अपने साथ अन्य सभी राजाओं की मुक्ति की शर्त रखी जिसे अन्तत: बादशाह को स्वीकार करना पड़ा तथा अन्य राजाओं के साथ गुरु जी की मुक्ति पर हिन्दु (सिख) समाज ने श्रीहरिमन्दिर अमृतसर में प्रकाशोत्सव किया। इसे सिख इतिहास में बन्दी छोड़ दिवस कहा गया है। श्री हरिमन्दिर अमृतसर के मुख्य ग्रन्थी भाई मणि सिंह ने दीवाली के दिन १७३७ ई. में मन्दिर में उपस्थित सिख समुदाय के समक्ष इस्लामी शासन द्वारा लगाया जज़िया देने के विरोध की घोषणा की, जिसके फलस्वरूप पंजाब के सूबेदार ज़कारिया खान द्वारा भाई मणि सिंह को क्रूरतापूर्वक उनके अंगप्रत्यंगों को काट काट कर निर्दयता से मृत्युदंड दिया गया।

इस समस्त चर्चा से एक बात तो स्पष्ट है कि दीवाली का पर्व आदिकाल से भारत व भारतवंशियों में अत्यन्त लोकप्रिय रहा, कालक्रम से अनेकों घटनाएं व जनश्रुतियां इससे जुड़ती चली गईं व इसको मनाने के स्वरूप में द्यूत-मद्यपान जैसी कुरीतियां भी अपना स्थान पाती गईं, किन्तु इसको मनाने के उत्साह में उत्तरोत्तर वुद्धि ही हुई है।

यही सार्वदेशिक परम्पराएं अपने राष्ट्र की सांस्कृतिक ऐक्य का दर्पण हैं। कुरीतियों से बचते हुए अपने पर्वों-तीर्थों-प्राकृतिक संसाधनों पर श्रद्धापूर्वक परम्पराओं के निर्वहण से हम राष्ट्रीय एकता में अपना सार्थक योगदान दे सकते हैं तथा हिन्दुओं पर आक्षेप करने वालों का मार्ग अवरुद्ध कर सकते हैं।

डॉ. जय प्रकाश गुप्त, अम्बाला
+९१-९३१५५१०४२५