Thursday, October 23, 2008

दीपावली- एक विवेचन








 कार्तिक अमावस्या पर दीप प्रज्ज्वलन की परम्परा अविस्मरणीय काल से सम्पूर्ण भारतवर्ष में जानी मानी जाती रही है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष उत्साहपूर्वक मनाए जाने वाले इस पर्व को दीवाली-दीपावली के नाम से पुकारा गया। इस पर्व को उत्सव के रूप में मनाए जाने के उत्साह में आतिशबाजी-मिठाई आदि इससे जुड़ते चले गए, यह इतिहाससिद्ध है। यही कारण है कि भारतीय शिक्षा में विभिन्न भाषाओं की शिक्षा में विद्यालय स्तर पर निबन्ध लेखन में दीवाली एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में स्वीकृत हुआ। किन्तु दीवाली पर निबन्ध की विषयवस्तु में प्राय पूरे भारत में भगवान राम के चौदह वर्षों के वनवास के उपरान्त इस दिन अयोध्या वापसी को ही इस पर्व के मूल में जानने की परम्परा का विकास हुआ है।

भारत के बुद्धिराक्षस सैकुलरों द्वारा पुन: पुन: राम व रामकथा पर प्रश्नचिह्न लगने के इस संक्रमण काल में राम से जुड़े आक्षेपों की जांच करने के कारण मन हुआ कि दीपावली उत्सव के राम से सम्बन्ध की पुष्टि करूं। इसके परिणामस्वरूप जो तथ्य मेरे समक्ष आए उनके कारण मेरे मन में इस पर्व का महत्व और अधिक पुष्ट हुआ है।

यहां चौंका देने वाला तत्य यह है कि वाल्मीकि रामायण अथवा तुलसी रामचरितमानस में राम की अयोध्या वापसी की तिथि का वर्णन नहीं है तथा न ही अयोध्यावासियों द्वारा दीपमाला करने का संदर्भ। युद्धकांड के १२५वें सर्ग के २४वें श्लोक में ऋषि वाल्मीकि ने हनुमान-निषादराज गुह संवाद प्रस्तुत किया है। हनुमान जी निषादराज को कहते हैं,"वे भगवान राम आज भरद्वाज ऋषि के आश्रम (प्रयाग) में हैं तथा आज पंचमी की रात्रि के उपरान्त कल उनकी आज्ञा से अयोध्या के लिये प्रस्थान करेंगे, तब मार्ग में आपसे भेंट करेंगे।" इसमें मास अथवा पक्ष का उल्लेख न होने से केवल इतना ही विदित होता है कि भगवान राम के वनवास से अयोध्या लौटने की तिथि षष्ठी रही होगी। अभिप्राय यह कि यह तिथि किसी भी प्रकार् अमावस्या नहीं है, अस्तु। किन्तु इससे कार्तिक अमावस्या व अयोध्या की दीपमालिका की लोकोक्ति असत्य सिद्ध नहीं होती, अपितु ऐसा प्रतीत होता है कि त्रेता युग में राम की अयोध्या वापसी से पूर्व कार्तिक अमावस्या पर दीप प्रज्ज्वलन की परम्परा समाज में थी, किन्तु राम की लंका विजयोपरान्त अयोध्या वापसी को अयोध्या वासियों ने अधिक उत्साहोल्लास से प्रकट किया जिससे सम्भवत: दीवाली की जनश्रुति राम के साथ जुड़ गई।

दीपावली का मूल कहां है, निश्चित रूप से कह पाना कठिन है, किन्तु इस पर्व से जुड़े ऐतिहासिक प्रमाणों पर दृष्टिपात से हमारे दीवाली सम्बन्धी ज्ञान में तो वृद्धि होगी ही। आइए प्रयास करें।

स्कन्दपुराण, पद्मपुराण व भविष्यपुराण में इसके सम्बन्ध में भिन्न भिन्न मान्यताएं हैं। कहीं महाराज पृथु द्वारा पृथ्वी का दोहन करके अन्न धनादि प्राप्ति के साधनों के नवीकरण द्वारा उत्पादन शक्ति में विशेष वृद्धि करके समृद्धि व सुख की प्राप्ति के उल्लास में इस पर्व का वर्णन है तो कहीं कार्तिक अमावस्या के ही दिन देवासुरों द्वारा सागर मन्थन से लक्ष्मी के प्रादुर्भाव के कारण जनसामान्य में प्रसन्नतावश इसके मनाए जाने का उल्लेख है। 

सनत्कुमार संहित के अनुसार एक बार दैत्यराज बलि ने समस्त भूमण्डल पर अधिकारपूर्वक लक्ष्मी सहित सम्पूर्ण देवी देवताओं को अपने कारागार में डाल दिया तथा इस प्रकार एकछत्र शासन करने लगा। लक्षमी के अभाव में समस्त संसार क्षुब्ध हो उठा, यज्ञ आदि में भी विघ्न उपस्थित होने लगा। तब देवताओं की प्रार्थना पर भगवान विष्णु ने वामन रूप धर कर उस पराक्रमी दैत्य पर विजय प्राप्त की तथा लक्ष्मी को उसके बन्धन से मुक्त किया। इस अवसर पर जनसामान्य का उल्लास स्वभाविक ही था अत: दीपप्रकाश किया गया होगा। इस ऐतिहासिक आख्यान का यह अर्थ हो सकता है कि दैत्यराज बलि ने प्रजा का धन वैभव कर के रूप में लूट कर् राजकोष में डाल दिया हो तथा वामन रूपी भगवान विष्णु ने बलि पर विजय प्राप्त कर उसका वध करके प्रजा को उसका धन लौटा दिया हो जिसके फ़लस्वरूप आर्थिक लाभ की प्रसन्नता में जनसामान्य ने लक्ष्मी पूजन किया हो।

इसके अतिरिक्त द्वापर युग में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन भग्वान कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध करके उसके बन्दीगृह से १६००० राजकन्याओं का उद्धार करने पर मथुरावासियों ने अमावस्या पर अपनी प्रसन्नता दीप जला कर प्रकट की। महाभारत के आदिपर्व में पाण्डवों के वनवास से लौटने पर प्रजाजनों द्वारा उनके स्वागत में उत्सव मनाए जाने का उल्लेख है, जिससे दीवाली का सम्बन्ध जुड़ता है। 

कल्पसूत्र नामक जैन ग्रन्थानुसार कार्तिक अमावस्या के ही दिन २४वें जैन तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अपनी ऐहिक लीला का संवरण किया। उस् समय देश देशांतर से आए उनके शिश्यों ने निश्चय किया कि ज्ञान का सूर्य तो अस्त हो गया, अब दीपों के प्रकाश से इसे उत्सव के रूप में मनाना चाहिए।

 ऋषि वात्स्यायन अपने ग्रन्थ कामसूत्र में इसको यक्षरात्रि के नाम से स्मरण करते हैं। सम्राट हर्षवर्धन के समकालीन नीलमतपुराण नामक ग्रन्थ में ‘कार्तिक अमायां दीपमालावर्णनम्’ नाम से एक् स्वतन्त्र अध्याय ही है।

सिख सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु नानक देव जी को बाबर ने इस्लाम न मानने के कारण कारावास में डाल दिया। गुरु जी के अनेक शिष्यों ने दीपशलाकाओं को हाथ में उठाए कारावास के बाहर विशाल प्रदर्शन किया जिससे भयभीत हो बाबर ने उन्हें छोड़ दिया। गुरु जी की मुक्ति पर उनके शिष्यों ने प्रकाशोत्सव मनाया, इसे दीवाली कहा गया। मुग़ल सम्रात जहांगीर ने सिख सम्प्रदाय की छठी पाद्शाही के पद पर आसीन गुरु हरगोविन्द जी को ५२ हिन्दु राजाओं के साथ कारावास में डाल दिया। शिष्यों के व्यापक विद्रोह से वशीभूत जहांगीर ने गुरु जी को छोड़ने का निर्णय लेना पड़ा, किन्तु गुरु जी ने अपने साथ अन्य सभी राजाओं की मुक्ति की शर्त रखी जिसे अन्तत: बादशाह को स्वीकार करना पड़ा तथा अन्य राजाओं के साथ गुरु जी की मुक्ति पर हिन्दु (सिख) समाज ने श्रीहरिमन्दिर अमृतसर में प्रकाशोत्सव किया। इसे सिख इतिहास में बन्दी छोड़ दिवस कहा गया है। श्री हरिमन्दिर अमृतसर के मुख्य ग्रन्थी भाई मणि सिंह ने दीवाली के दिन १७३७ ई. में मन्दिर में उपस्थित सिख समुदाय के समक्ष इस्लामी शासन द्वारा लगाया जज़िया देने के विरोध की घोषणा की, जिसके फलस्वरूप पंजाब के सूबेदार ज़कारिया खान द्वारा भाई मणि सिंह को क्रूरतापूर्वक उनके अंगप्रत्यंगों को काट काट कर निर्दयता से मृत्युदंड दिया गया।

इस समस्त चर्चा से एक बात तो स्पष्ट है कि दीवाली का पर्व आदिकाल से भारत व भारतवंशियों में अत्यन्त लोकप्रिय रहा, कालक्रम से अनेकों घटनाएं व जनश्रुतियां इससे जुड़ती चली गईं व इसको मनाने के स्वरूप में द्यूत-मद्यपान जैसी कुरीतियां भी अपना स्थान पाती गईं, किन्तु इसको मनाने के उत्साह में उत्तरोत्तर वुद्धि ही हुई है।

यही सार्वदेशिक परम्पराएं अपने राष्ट्र की सांस्कृतिक ऐक्य का दर्पण हैं। कुरीतियों से बचते हुए अपने पर्वों-तीर्थों-प्राकृतिक संसाधनों पर श्रद्धापूर्वक परम्पराओं के निर्वहण से हम राष्ट्रीय एकता में अपना सार्थक योगदान दे सकते हैं तथा हिन्दुओं पर आक्षेप करने वालों का मार्ग अवरुद्ध कर सकते हैं।

डॉ. जय प्रकाश गुप्त, अम्बाला
+९१-९३१५५१०४२५

2 comments:

  1. aap ki research chintan karne yogya hai.Main aap ko badhai deta hoon.

    sanjeev jain

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  2. Bharat ke smariddh vaangmaya mein se aapne jo prasang chune hain tatha itihaas ki ghatnaon ke sandarbh dekar Deepawali ke paawan parv ko jo uchch bhavbhoomi pradan ki hai, uske liye aapka aabhar prakat karta hoon.
    Dr. Manoj Sharma

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